श्री महाप्रभुजी प्राकट्य
एक समय गोलोकधाम में श्री प्रभु निकुंज में अकेले बिराज रहे थे। उसी समय श्री
स्वामिनीजी निकुंज के द्वार पधारे।
तब श्री स्वामिनीजी ने दूर से देखा की श्री प्रभु की गोद में कोई गोपी बेठी है। इतना देखकर श्री स्वामिनीजी क्रोधित होकर प्रभु के निकुंज द्वार से पलटकर स्वयं की निकुंज में मान करके बिराजे।
ये देख श्री प्रभु विचार करने लगे की आज श्री स्वामिनीजी को क्या हुआ जो निकुंज में प्रवेश किये बिना निकुंज द्वार से ही वापस पधार गए।
प्रभु विचार करने लगे की "आज तो मेने स्वामिनीजी को कुछ कहा भी नही है फिर क्यों मान करके निकुंज द्वार से ही पधार गए।
प्रभु ने मन में ही विचार किया की "आज मेरी कोई गलती नही है मैं आज स्वामिनीजी का मान छुड़ाने नही जाऊँगा।
श्री स्वामिनीजी नित्य मान करे और श्री प्रभु श्री स्वामिनीजी का मान छुड़ाते
लेकिन आज तो कुछ अलग ही लीला हुई।
दोनों स्वरूप अलग अलग अपनी निकुंज में बिराज रहे है और एक दूसरे के विरह में मान कर के बिराज रहे है।
कुछ समय पश्चात श्री स्वामिनीजी की निकुंज में श्री ललिताजी पधारे।
श्री ललिताजी ने श्री स्वामिनीजी से मान करने का कारण पूछने हेतु खूब विनती करी
तब स्वामिनीजी ने ललिताजी से कहा---- "आज जब मैं प्रभु की निकुंज में पधार रही थी तब प्रभु स्वयं की गोद में किसी गोपी को लेकर बिराज रहे थे।
श्री स्वामिनीजी ने ललिताजी से कहा की मेरे स्थान कोई और गोपी ले ये मैं कैसे सहन करूँ? अब मैं प्रभु के पास नही पधारु।
श्री स्वामिनीजी की बात सुनकर श्री ललिताजी विचार करने लगे की ऐसा तो कभी हो नही सकता।
तत्पश्चात ललिताजी श्री प्रभु के निकुंज में पधारे।
वहाँ श्री ललिताजी ने देखा की श्री प्रभु की निकुंज में कोई गोपी नही है और श्री प्रभु मान करके बिराजे है।
ललिताजी ने श्री प्रभु को मान छोड़ने हेतु खूब विनती करी।
लेकिन श्री प्रभु हठ लेकर बिराजे। मान छोड़ने को तैयार नही।
दोनों स्वरुप परस्पर एक दूसरे के विरह में अश्रु बहा रहे है लेकिन मान छोड़ने हेतु कोई तैयार नही।
श्री ललिताजी श्री यमुनाजी श्री चंद्रावलीजी आदि सभी स्वरुपो ने श्री प्रभु व श्री स्वामिनीजी से खूब विनती करी लेकिन दोनों स्वरूप मान छोड़ने के लिए तैयार नही। सभी उदास हो गए।
जब विरह की पराकष्ठा आई तब श्री प्रभु के ह्रदय में बिराजमान श्री स्वामिनीजी का स्त्रीगूढ़ भावात्मक स्वरूप बहार आया
और
श्री स्वामिनीजी के ह्रदय में बिराजमान श्री प्रभु का पुंभावात्मक रसरूप स्वरूप बहार आया।
इन दोनों स्वरूप को कभी मान नही हुआ। दोनों स्वरुप भावात्मक रीत से निकुंज के बहार पधारे। दोनों भावात्मक स्वरूप का श्री यमुना तट पर मिलन हुआ और एक हो गया।
और
तीसरा स्वरुप जो प्रकट हुआ ये स्वरूप ही हमारे श्री महाप्रभुजी👣👏👏।
श्री महाप्रभुजी ने दोनों स्वरुप को समझाकर मान छोड़ाया।
और श्री स्वामिनीजी से विशेष रूप से ये भी कहा की "श्री प्रभु की निकुंज में कोई गोपी नही थी। श्री प्रभु के तेजस्वी ह्रदय प्रदेश में आपने स्वयं का हु प्रतिबिंब देखा सो आपश्री का ही स्वरुप था
श्री महाप्रभुजी की बात सुनकर श्री स्वामिनीजी अति प्रसन्न हुए और आनंदित होकर कहने लगे--- हे! प्रभु मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ।
श्री महाप्रभुजी ने युगलस्वरूप को सिंहासन पर पधराया और दो हाथ जोड़कर वंदन किया और मधुर स्वर से कहा----
"श्री कृष्णः शरणं मम"
श्री स्वामिनीजी सहित श्री कृष्ण मैं सदा इनकी ही शरण हूँ और ये ही मेरा सर्वस्व है।
इस प्रकार गोलोकधाम में आनंद मंगल छा गया और श्री महाप्रभुजी के प्राकट्य का महामंगल महोत्सव हुआ।
श्री युगल स्वरूप के साक्षी स्वरूप से श्री महाप्रभुजी का प्राकट्य हुआ।
ऐसे श्री युगलस्वरूप के साक्षी स्वरूप श्री महाप्रभुजी की सदा सर्वदा जय हो।