श्रीवल्लभ कृपा


श्रीवल्लभ अपने निज जन का बहुत ही ख्याल करते है | पुष्टि जीव पर कृपा जब बरसनी शुरू होती है तो कई प्रकार से उसकी अनुभूति होती है | गौर से देखे तो पता चले | कभी अपनी खुद की जिंदगी की परछाई से बहार निकलकर साक्षी भाव से अपने ही ही जीवन में घटित घटना पर ध्यान ही नहीं देते , इसलिए पता कैसे चले |


जब खुद अहं के बंदी है तो दृढ आश्रय श्रीवल्लभ का कैसे सिद्ध हो ? श्री वल्लभ प्रभु की कृपा से दीनतापूर्वक ही प्रभु का शरण प्राप्त हो सकता है | दीनता और अहं का ताल मेल हो ही नहीं सकता | अहं है तो दीनता असंभव है ऐसी परिस्थिति में श्रीवल्लभ ही कृपा करके अहं मिटाने के लिए जो भी लौकिक सुख में मोह है वह हटाना शुरू करते है | श्रीवल्लभप्रभु चाहते है , इन लौकिक सुख में से बहार निकलकर जीव उनकी और कदम बढ़ाये | ये श्रीवल्लभप्रभु की कृपा नहीं तो और क्या है | हम भाग्यशाली है की वल्लभप्रभु की इतनी बड़ी कृपा होती है |


अपने अहं का आश्रय करने के बावजूद जब सारे पैतरे नाकाम सिद्ध होते है , अपनों से सम्बन्धो में कड़वाहट पैदा हो जाती है , जिसे अपना मानते है वो स्वार्थ के पुतले प्रतीत होने लगते है | यह बात बोलनी जितनी आसान है उतनी है नहीं | इसमें भी श्रीवल्लभ की कृपा ही कारण है | यह सब रात ही रात में संभव नहीं | यह प्रक्रिया निरंतर चलती है , जो श्रीवल्लभप्रभु हमे उनके करीब लाना चाहते है | 


हमारा ध्यान इस बात पर जितना जल्दी आ जाये उतना श्रम श्रीवल्लभप्रभु को कम पड़ता है |श्रीवल्लभ श्रम उठाते है , हमे अपनी और खीचने |जीव आज के समय में दुनिया की बात मान कर अपने वल्लभ से दूर हो जाता है पर श्रीवल्लभ अपने प्यारे जीव को कभी भी अकेला नहीं छोड़ते चाहे कैसी भी परिस्थिति आ जाए। एक बार ब्रह्मसम्बंध हुआ की वह जीव श्रीवल्लभ का हो गया। आज समर्पण के मायने बदल गए है मटीरीयलिस्टिक हो गए है इसीलिए अपने श्रीवल्लभ के स्वरूप को भी आम व्यक्ति की तरह देखा जा रहा है। व्यावहारिक संत मानने लगे है । श्री वल्लभ के प्रति पुरुषोत्तम भाव नष्ट हो गया है । फिर भी श्रीवल्लभ की कृपा सदा बनी हुई है । इस संशय को सिर्फ़ उनकी कृपा ही दूर कर सकती है।


१ बार जब मन में दृढ विश्वास हो जाये कि मेरा खुद का कोई सामर्थ ही नहीं , मै कुछ नहीं कर सकता , सारे दाव उलटे पड़ने लगे , जो भी आश्रय के रास्ते थे वे सारे टेस्ट कर लिए , सारे के सारे बेकार साबित हो चुके , तब जाके भगवान की और आश्रय के लिए मुड़ते है | तब हमें यकीन हो गया की श्रीवल्लभ के अलावा और कुछ काम नहीं आना है , तब ही श्रीठाकुरजी का आश्रय सिद्ध होता है | अहं का मिटना ही दीनता का स्वरूप है | जैसे जैसे अहं की मात्रा कम होती जाती है , उसके बराबर मात्रा में दीनता बढ़ती जाती है | जैसे जैसे दीनता बढ़ती जाती है , श्रीठाकुरजी का आश्रय दृढ आश्रय में परिवर्तित होता जाता है |


हम पुष्टि जीव इतने भाग्यशाली है की आज के इस कलियुग में भी हमे श्री महाप्रभुजी , श्री गुंसाईजी और सारे श्री वल्लभकुल प्रभु की कृपा से अपने ही घर में कोटि कोटि ब्रह्माण्डनायक , गोलोकधाम के स्वामी, निकुंजनायक की निज सेवा प्राप्त हो रही है।
जय श्री कृष्ण