वैष्णव कों भाव ..... "मेरो सामर्थ्य कहिवे कौ नाहीं।"

"ता समै दुपहरी की ताप बोहोत भई।सो सूर्य कों देखि कै श्रीगुसांईजी सों हृषिकेस ने बिनती करी,जो-महाराज!श्रीनाथजी और श्रीनवनीतप्रिय जी एक ठोर बिराजे तो आपकों श्रम न होंइ।ऐसें घाम में पधारत हो।सो हमकों देखि कै महादुख होत है।यह सुनि कै श्रीगुसांईजी हृषिकेस सों कहे,जो-सदा श्रीजी और श्रीनवनीतप्रिय जी पास बिराजे तो इतनी आरति हम कों न होंइ।काहेतें,जब श्रीनवनीतप्रिय जी के निकट हम रहत हैं तब तो श्रीनाथजी कौ स्मरन होत है।तब विरह होत है।पाछें जब श्रीजीद्वार जात हैं।तब श्रीनवनीतप्रिय जी कौ स्मरन होत हैं जो-बालक हैं,बेगि जायो चहिये।या प्रकार आरति सिद्ध होत है।तातें श्रीजी श्रीगोवर्द्धन पर्वत पर सदा बिराजे।श्रीनवनीतप्रिय जी श्रीगोकुल में सदा बिराजे।ताही में आछौ है।
भावप्रकाश-यह कहि यह जताये जो सेवा में संयोग -विप्रयोग दोऊ भाव राखने,तातें रुचि बढे।"
ये सब बातें करते श्रीगुसांईजी तथा हृषिकेश श्रीजीद्वार आये।श्रीगुसांईजी तत्काल स्नान करके झारी भरकर श्रीनाथजी के मंदिर में पधारे।श्रीनाथजी के दर्शन किये और हृषिकेश को करवाये।तब हृषिकेश ने एक कीर्तन नट राग में गाया-
परम कृपाल श्रीवल्लभनंद।
भक्त मनोरथ पूरन कारन भुव पर आये आनंद कंद।।
गिरिधरलाल प्रगट दिखराये पुष्टिभक्ति रसदान किये।
हृषिकेस सिर सदा बिराजो यह जोरी सुख नैन दिये।"
श्रीनाथजी और श्रीगुसांईजी की जोडी देखकर यह सुख सदा अनुभव में आता रहे।जैसे भक्त वैसे भगवान,जैसे भगवान वैसे भक्त।खूब मिली यह जोडी।जो अंतरंग भक्त हैं वे ही इसके आनंद की थाह पा सकते हैं।हर किसीके बस की बात नहीं।निजानंद की चर्चा पुष्टि जीव के साथ ही की जा सकती है।अन्यजन के साथ इस चर्चा का जो निषेध है वह स्वाभाविक है।उसमें न वह आर्ति होती है,न विरह की वेदना जो इस प्रसंग को समझ सके।
इसी प्रसंग में आगे कहा है-
"यह कीर्तन सुनिकै श्रीगुसांईजी हृषिकेस ऊपर बोहोत ही प्रसन्न भए।पाछें सेन तांई पहोंचि कै अनोसर कराय कै सेन कौ दूध श्रीगुसांईजी आपने श्रीहस्त में ले आये।सो एक मलरा में थोरो सो प्रसादी दूध हृषिकेस कों दियो।सो हृषिकेस ने श्रीगुसांईजी की बैठक में जांइकै लियो।सो लेत ही देहानुसंधान भूलि गये।सो बैठक ही में बैठि रहे।वाही ठौर परि रहे।और हृदय भीतर स्वरुपानंद कौ अनुभव होन लाग्यो।
तब वैष्णव सब डरपन लागे जो-हृषिकेस कों कहा भयो?तब श्रीगुसांईजी कहे-जो कछु चिंता मति करो।काल्हि आछौ होइ जाइगो।
तब सब वैष्णव बिदा होइकै अपने डेरा गये।पाछें जब घरी दोई रात्रि पाछिली बाकी रही।तब हृषिकेस की मुर्छा बीती,सावधान भये।ता समै श्रीगुसांईजी उठे।जब हृषिकेस सों पूछे,जो-कहो,समाचार कहा है?तब हृषिकेस ने बिनती करी,जो-महाराज!आपकी कृपा है तहां सदा जागत में सोवत में सब ठौर कल्यान है।जागत में आपकौ दरसन है,सोवत में स्वप्न में आपकौ दरसन।और मैं कहा कहों?मेरो सामर्थ्य कहिवे कौ नाहीं।
यह सुनि कै श्रीगुसांईजी बोहोत प्रसन्न भए।श्रीमुख सों कहे,जो वैष्णव कों ऐसोइ चाहिये।"