शंख-चक्र-गदाधारी,श्रीमथुराधीशप्रभु:।
करुणग्राम नदी कूलात् स्वयं प्रादुर्बभूव य:।
पद्मनाभ मन: कामं, पूरयिता तनुरूपधृत्।
पातुनोsसँख्यान् जीवान्, केवलं कृपया तया।
श्रीशारदाचिरविहारसुदिव्यगेहम्,
योगेश्वरं गुणनिधि करूणावतारं ।
अग्निकृतं च प्रथम-पथ-पुष्टि-पीठम्,
नमामि नित्यं श्री रणछोड़लालम् ।।
*नन्द गृह बाजत आज बधाई।
नाचत गावत करत कुलाहल उर आनन्द न समाई।
गोप सबें मिल भेंट बहुत लें आये अति अतुराई।
सूरदास महर मनहि मन फूले अंग न माई।*
समस्त पुष्टि सृष्टि को एवं विशेषत: प्रथमगृह की प्रथमेश नाद सृष्टि को एवं हमारे निजजन प्रिय वैष्णवजन को हमसब के प्राण प्रेष्ठ पुष्टिसम्प्रदाय के उद्धारक प्रचारक परम् वन्दनीय परम् पूजनीय स्वनाम धन्य नित्य लीलास्थ गुरुदेव तातचरण *श्रीरणछोड़ाचार्यजी श्रीप्रथमेशजी* के प्राकट्योत्सव की अनेकानेक बधाई।
मेरे हृदय स्थान में सदा सर्वोच्च विराजमान रहने वाले मेरे पूज्य तातचरण मेरे गुरुदेव मेरे मार्गदर्शक मेरे सर्वस्व, जिन्हें समस्त पुष्टि सृष्टि प्रेम सहित आदर से श्रीप्रथमेशजी के नाम से स्मरण करती है , आज उनका प्राकट्योत्सव है।
आज मैं अनुभव कर रहा हूँ कि प्रभु के विषय में बोलना तो सरल है किन्तु स्वगुरु के विषय में बोलना अत्यंत कठिन है, क्योकि जिन महान आचार्य के जीवन का आप अंग रहे हों जिनके जीवन का प्रत्येक पल कहने जैसा हो सुनने जैसा हो,जिनके जीवन के प्रत्येक पल से प्रेरणा मिलती हो ,तो किस किस प्रसङ्ग को कहा जाए और किसको नहीं, अगर मैं जीवन भर अनवरत आपश्री के अलौकिक दिव्य जीवन के विषय में बोलूं तो शायद समस्त शब्द कोषों के शब्द समाप्त हो जाएं पर आपका दिव्य जीवनचरित्र पूर्ण न होगा।
फिर भी मैं आपश्री के यत्किंचित् माहात्म्य को बोलकर अपनी वाणी को पवित्र करना चाहता हूँ, मैं हमेशा मानता हूँ कि आपके नाम मात्र ग्रहण करने से मेरी वाणी पवित्र हो जाती है।
प्रभु स्वयं उद्धवजी को श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध के सप्तदश अध्याय में आज्ञा करते हैं *"आचार्यं मां विजानीयात् नावमन्येत कर्हिचित् । न मर्त्यबुद्ध्यासूयेत सर्वदेवमयो गुरु:*।(११/१७/२७) गुरु का स्थान गुरु का स्वरूप इस एक ही श्लोक में आ जाता है कि गुरु स्वयं ब्रह्म है गुरु सर्वदेवमय हैं, जिस प्रकार भगवान में समस्त ऐश्वर्यादि गुण विद्यमान होते हैं उसी प्रकार मुझे भी मेरे पितामह के स्वरूप को देखकर आश्चर्य होता था कि लौकिक में किसी एक व्यक्तित्व में एक साथ इतने गुण कैसे हो सकते हैं!! वैसे भी
*"स्ववंशे स्थापित-अशेष-स्वमाहात्म्य:"*
श्रीआचार्यचरण के इस नाम के अर्थ को देखें तो आपने कृपा करके अपना माहात्म्य अपने वंश में स्थापित किया ही है, इसी को ध्यान में रखते हुए अगर कोई अन्यथा अर्थ न लें तो उदाहरण के लिए मैं यहाँ नामरत्नाख्यस्तोत्रम् में श्रीरघुनाथजी द्वारा कहे गए श्रीगुसाँईजी के नाम द्वारा स्व गुरु श्रीप्रथमेशजी के गुणों को प्रकट करना चाहूंगा,
*धर्मसेतु: भक्ति सेतु:* श्रीप्रथमेशजी भी श्रीप्रभुचरण की तरह धर्म और भक्ति के सेतु बने अपने सेवकों के लिए । वैदिक धर्म का यज्ञादि द्वारा पालन किया और सेवा द्वारा भक्ति का। पुष्टिप्रचारकार्यार्थमर्पितं येन जीवनम् ।
तमाचार्यवरं पूज्यं,प्रथमेशं नमाम्यहम् ।।
श्रीगुसाँईजी का नाम *गोवर्धनागमरत:* श्रीप्रथमेशजी को भी श्रीगिरिराज तरहटी में जतीपुरा में विराजना प्रिय लगता था आज भी भावात्मकरूप से आप वहीं विराज रहे हैं, इसलिए आपका नाम ब्रजलीलाकर्त्रे नमः और श्रीमथुरेशमहोत्सवकारकाय नमः है।
पुष्टिमार्गोक्तधर्मादिप्रकाशनपरायण।
व्रजप्रियो व्रजासक्तः प्रथमेशं नामाम्यहं।।
श्रीप्रभुचरण का नाम *श्रीकृष्णभक्तिप्रवर्तक:* तातचरण ने भी श्रीकृष्ण भक्ति का सभी जगह पधारकर प्रचार किया,
अदेयवस्तुदाताच जगदानन्ददायकः।
महाबुद्धिश्चक्रवर्ती प्रथमेशं नामाम्यहं।।
श्रीप्रभुचरण का नाम *सर्वशास्त्रविदग्रणी:* तातचरण भी अनेकानेक शास्त्रों में अग्रणी थे अनेक शास्त्रों के जानकार थे चाहे वह भक्ति शास्त्र हो या वेदांतशास्त्र- आयुर्वेद- संगीत शास्त्र आदि,
प्रथमेशः महात्यागी श्रीरणछोड़लालसंज्ञकः ।
सुसिद्धान्तप्रवक्ता च,उत्साही ज्ञानवर्धकः ।।
श्रीगुसांईजी का नाम *श्रीभागवतभाववित्* श्रीभागवत के भाव को तातचरण स्वयं जानते थे और प्रवचन आदि द्वारा सबको बताते थे,
श्रीभागवततत्वार्थज्ञातातज्ज्ञानपोषकः।
सर्वविद्याप्रवीणश्च प्रथमेशं नमाम्यहम्।।
*व्रजेश्वरप्रीतिकर्ता* आप श्रीमथुरेश्वर प्रीति कर्ता हैं,
श्रीवल्लभान्वयविभूषितभूषिताङ्ग,
सेव्यस्वकीयमथुरेशपदानुसक्त !
आचार्यवर्य्य वरद 'प्रथमेश' धीमन्,
वन्दे महापुरूष! ते चरणारविन्दम् ।।
*महोज्वलचरित्रवान्* आपका चरित्र इतना उज्वल है कि आज भी आपको याद करके स्वीयजनों के नेत्र में प्रेमाश्रु आ जाते हैं,
भक्तानुग्रकर्तारं गोस्वामिकुलभास्करम्।
मेधाविनं महोदारं प्रथमेशं नामाम्यहम्।।
*गोब्राह्मणप्राणरक्षापर:* श्रीविट्ठलनाथजी की तरह श्रीप्रथमेशजी ने भी अनेक गोशालाओ का निर्माण कराया एवं अनेक ब्राह्मण व्रजवासियों का पोषण किया, इसलये आपका नाम गोवंशरक्षकाय नमः और ब्रह्मण्यदेवाय नमः है।
*शश्वन्महामखकर:* आपने भी अनेक सोमयज्ञादि किये,
सोमयज्ञस्य कर्तारं सोमयज्ञविधायकम् ।
सोमयज्ञस्य दृष्टारं प्रथमेशं नमाम्यहम् ।।
*आचार्यरत्नम्* आप श्री भी आचार्यरत्न हैं,
पुष्टिमार्गोपदेष्टारमाचार्यकुलभूषणं।
गोस्वामीवर्य्य पूज्यं श्रीप्रथमेशं नामाम्यहं।।
*सर्वस्वदानकुशल:* आपने भी अपनी बहुत सम्पत्ति अनेक परोपकारी संस्थाओं को दान कर दी,
दीक्षितं दीक्षकं दक्षं दिव्यदृष्टिप्रदायकम् ।
दयितं दक्षिणं दिव्यं प्रथमेशं नमाम्यहम् ।।
*गीतसंगीतसागर:* श्रीविठ्ठलनाथजी की तरह आचार्य श्रीप्रथमेश भी कीर्तन में गायन वादन में निपुण थे, उनके कीर्तन गायन की उपलब्ध रिकॉर्डिंग को सुनकर आज भी आनन्द आ जाता है,
षडगुणैश्वर्यसम्पन्नः सर्वशास्त्रदर्शकः।
सङ्गीतादिसदासक्तः प्रथमेशं नामाम्यहं।।
और मैं कितने गुण गिनाऊँ ! मेरी अल्प वाणी आपके अनन्त गुण को गिनाने में असमर्थ है, उनके गुणों की कहाँ तक कहूँ, आपके नाम से ही हमारा अस्तित्व है हमें प्रथमेश का घर कहा जाता है, तो प्रथमेश नाम इतना प्रसिद्ध हुआ आपके सुचरित्र से की आपके नाम से ही हमारी पहचान बन गयी।
जिनसे हमारी और प्रथमेश सृष्टि की पहचान है ऐसे हमें पहचान देने वाले, अपने आदर्शमय जीवन से पुष्टिमार्ग को जन जन तक पहुंचाने वाले आचार्यवर्य परम् वन्दनीय वैष्णव हृदय सम्राट गुरुदेव तातचरण श्रीप्रथमेशजी श्रीवल्लभंवल्लभ: के प्राकट्योत्सव की आप सबको पुनः बधाई ।
श्रीप्रथमेशाय वयं नुम:
किमधिकम्
गोस्वामी मिलनकुमार
शुद्धाद्वैत प्रथमपीठ™ (कोटा)