एकबार श्रीगुसाईजी के पास गोविन्द स्वामी अपने रचित श्री यमुनाजी के पद ले के आये।श्रीगुसाई ने गोविन्दस्वामी को आज्ञा करी की २५२ पद श्री यमुनाजी मे पधरा दो।
गोविन्द स्वामी ने प्रश्न नहीं कीया क्यों पधराना है?।श्री गुसाई ने आज्ञा की और उन्होंने सीधा श्री यमुनाजी में २५२ पद पधरा दिए।
श्री गोविन्द स्वामी की बोहोत इच्छा थी की २५२ पद श्री ठाकुरजी कु अंगिकार करावे। लेकिन गुसाईंजी ने आज्ञा करी तो उन्होंने २५२ पद बिना सोचे श्री यमुनाजी में पधरा दिए।
लेकिन श्री गुसाईंजी गोविन्द स्वामी की मन की मनोरत पूर्ण करने के लिए श्री गोविन्द स्वामी का हाथ पकड़कर मात्र गोविन्द स्वामी को निकुंज में अपने साथ ले गए। वहा निकुंज में दोनों युगल स्वरुप सामने सिंघासन् पर बिराजे थे। और वो जो यमुनाजी को जो २५२ पद सौप दिए थे वो स्वयं श्री यमुनाजी २५२ पद साथ में ले के आ रहा है और श्री गुसाईंजी की हाथ में पधरा दिए। श्री गुसाईंजी ने गोविन्द स्वामी से कहा, में जानता हु, तुम्हारे मन में मनोरथ था की तुम्हे श्री ठाकुरजी कु अंगीकार करना था । पर तुमने एक बार भी नहीं पूछा के ये २५२ पद क्यों श्री यमुनाजी में पधराउ।( दास्य भाव )
इसलिए में तुम्हारा मनोरध अब पूरा करवा रहा हु, और वो २५२ पद वहा श्री ठाकुरजी सन्मुख अंगीकार करवाया। इसलिए मात्र गोविन्द स्वामी को लेकर निकुंज में गए, वरना परमानन्द दासजी या सूरदासजी भी कोई कम नहीं थे। क्योकि उनका ये मनोरथ अधूरा रह गया था जो पूर्ण करना था इसलिए अपने संग श्रीगोविन्दस्वामी कोअपने साथ निकुंजमें ले गए.....!
इसे कहते है दास्य भाव जो शिघ्र ही गुरु आज्ञा का पालन करे....!
और इसे कहते है श्री गुरु कृपा...जो भक्त के मन की भी जान लेते है और भक्त के मन के मनोरथ भी पूरण करते हे....!
શ્રીमहाप्रभुजी की वाणी को प्रभु का अधरामृत समझ कर ग्रहण करना चाहिये। सत्संग का सही स्वरूप वही, जो महाप्रभुजी की वाणी से ओतप्रोत हे अन्यथा वह सत्संग अपने लिये नहीं हे अनेक साधन करो पर महाप्रभुजी के आश्रय को छोडकर किया तो नहीं करने के समान हे।
श्री वल्लभाधीश की जय हो
श्री गुसाईंजी परम दयाल की जय हो